सूर की कृष्ण-कथा का पौराणिक आधार
सगुण भक्ति के आराध्य देवी देवताओं में लीलाधर
भगवान कृष्ण का स्थान सर्वोपरि रहा है. भगवान कृष्ण
का वर्णन भारतीय पुराण और इतिहास में सर्वाधिक रूप में मिलता है. महाभारत, गीता, पुराण आदि ग्रंथ कृष्ण कथा के पौराणिक साक्ष्य रहे हैं
जिनके आधार पर परवर्ती रचनाकारों ने अपने कालानुसार यथासंभव कृष्ण-कथा की पुनर्रचना की. सूरदास
जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ कृष्ण-कथा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें भागवत पुराण के द्वादश स्कंधों को
उपजीव्य मानकर कृष्णभक्ति के चरित नायक कृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन
प्रभावस्तुति के रूप में किया गया है.
महाभारत में कृष्ण एक सामान्य मानव के रुप में सात्वत
यदुवंशीय क्षत्रिय के रूप में चित्रित हुए हैं . यह
कृष्ण चरित के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाला एक प्रमुख ग्रंथ है अगर गीता
के आधार पर कृष्ण के चरित्र का आकलन करें तो उनका दार्शनिक रूप पूर्ण रूप से
उद्घाटित होता है जो अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं, वहीं भारतीय पुराणग्रंथों
में श्रीकृष्ण का अध्यात्मिक रूप प्रमुखता से व्यंजित होता है जहाँ अन्य अवतारों
को अंश अवतार और उन्हें पूर्णावतार कहा गया है. भागवतपुराण,
हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण, पद्मपुराण, ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण और
ब्रह्मवैवर्तपुराण में कृष्ण का महिमामंडन विस्तारपूर्वक हुआ है और देवाधिदेव को
लोकरंजक और लोकरक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है.
पुराणों में भगवान कृष्ण के रूप माने गये
हैं -
ऐश्वर्यमय कृष्ण और माधुर्यमय कृष्ण. ऐश्वर्य रूप के अंतर्गत उनकी लोकरक्षक लीलायें
हैं जिनमें वे राक्षसों का संहार कर लोगों की रक्षा करते हैं वहीं लोकरंजक रूप
कृष्ण के माधुर्य भावना का परिचायक है जिसमें वो अपने भक्तों के अनुरंजन के लिये
विभिन्न लीलायें करते हैं. पुराणों में कृष्ण के शैशव, विद्याध्ययन, विवाह, संतति आदि पारिवारिक
कृत्यों का वर्णन मिलता है जो महाभारत में अंकित नहीं है.
इनमें वर्णित कृष्ण महाभारतीय कृष्ण और द्वारिकाधीश कृष्ण से परे व्रजवासी
लोकपरायण कृष्ण रहे हैं.
सूर वर्णित कृष्ण कथा किसी न किसी रूप में
पुराणों से संबद्ध है और सूरदास जी ने अपने प्रतिपाद्य के अनुकूल स्रोत ग्रहण कर
अपनी कथाओं को मौलिक रूप में प्रस्तुत किया है. ‘भागवत’ के
सामान ही सूर के कृष्ण देवकी के गर्भ से अपने पूर्ण ऐश्वर्य के साथ प्रकट होते है
और शंकर और ब्रह्मा द्वारा उनकी स्तुति भी की जाती है परन्तु उनमें अपने माता पिता
को अपने अलौकिक रूप से अधिक देर तक चकित करने का आग्रह नहीं है. यही नहीं, सूर के कृष्ण में जो कार्य-संपादन की सहजता और कोमलता देखने को
मिलती है वह किसी भी पौराणिक कृष्ण में नहीं मिलती. सूर के
कृष्ण कथा का अध्ययन करने के पश्चात हमें यह ज्ञात होता है कि पुराणों में कई ऐसे प्रसंग
हैं जिनका सीधा सम्बन्ध अगर कृष्ण-राधा से नहीं हैं तो उन्हें सूरदास जी ने अपनी
कृष्ण कथा के क्रम में छोड़ दिया है तथा
कहीं – कहीं कुछ ऐसे भी संदर्भ भी उपस्थित हुए हैं जिनकी पुराणों में कोई चर्चा
नहीं है परन्तु कृष्ण राधा का शाश्वत
सम्बन्ध दिखने के लिये उन सन्दर्भों का समावेश इस कथा में किया गया है. कृष्ण प्रिय राधा की चर्चा कृष्णकथा
प्रमुख पुराण ‘भागवत’ में कहीं भी नहीं मिलती भले ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में रास
के बीच राधा प्रमुख रूप में दिखाई पड़ी है, परन्तु सूर ने राधा को कृष्ण की सहचरी प्रिया के रूप में अपनी
कथा में प्रमुखता से स्थान दिया है और अपनी लौकिक दृष्टि से उनके विवाह प्रसंग का
समावेश साभिप्राय किया है. कृष्ण की प्राणेश्वरी राधा को
स्वकीया रूप प्रदान करने का मौलिक अवदान सूर का ही है. चीरहरण
और रासलीला जैसी कई मौलिक उद्भावनाएँ सूर ने अपनी कृष्ण कथा में प्रस्तुत की
है. सूर की दृष्टि कृष्ण के लोकरंजक रूप पर ही अधिक
रही है और लीला वर्णन मे भाव पक्ष की प्रधानता रही है. भाव
चित्रण के संदर्भ में उनक वात्सल्य भाव सर्वश्रेष्ठ है .
सूर कृत ‘सूरसागर’ का ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग एक
प्रमुख विरह ग्रंथ है जिसकी कथा मुख्य रूप से ‘भागवत’ पुराण से उद्धृत है. भ्रमरगीत में गोपियों की मार्मिक
विरह-भावना, सगुण-निर्गुण विवेचन, ज्ञान और भक्ति का तारतम्य तथा भक्ति की सीमाओं
का जैसा मनोहारी चित्रण हुआ है वह सूरदास की भक्ति के दार्शनिक और भावुक दोनों रूप
सामने लाने में समर्थ है. सूर वर्णित राधा- कृष्ण के मिलन का प्रसंग
ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रसंग से भिन्न है .वे एक दूसरे से
कुरुक्षेत्र में मिलते हैं और मिलन के पश्चात अपने अपने स्थान गोकुल और द्वारिका
के लिये अलग अलग प्रस्थान करते हैं. सूर के राधाकृष्ण का यह
मिलन बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है , भले ही इसमें पौराणिक स्वरूप के सूक्ष्म संस्कार
दिखाई पड़ते हों परन्तु यह अपने आप में पूर्ण रूप से मौलिक और अभूतपूर्व है.
इस प्रकार सूरदास जी रचित कृष्ण–कथा के आधार
उपरोक्त वर्णित पुराण ग्रंथ बने हैं जिनमें
मौलिकता का पुट उनके कृष्णचरित को सभी दृष्टियों से सर्वोपरि और विशिष्ट
बनाता है. भाषा की सजीवता के लिये मुहावरों और लोकोक्तियों का पुट उनकी कथा के
वर्णन को अभूतपूर्व सौन्दर्य की अनुभूति प्रदान करते है.
सुस्मित सौरभ
शोध
छात्र : मगध विश्वविद्यालय
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