बुधवार, 18 दिसंबर 2013



             
            कुँवर नारायण के प्रबंध काव्यों में मिथक   
      
  हिन्दी साहित्य और मिथक    
        साहित्य सृजन के क्षेत्र में ‘मिथक’ एक ऐसा तत्व है जो भाषा को व्यापक आयाम देकर रहस्यात्मकता,लाक्षणिकता और विलक्षणता प्रदान करने में समर्थ है .मिथक के विस्तृत परिदृश्य में केवल पुराणकथा का नहीं बल्कि लोककथा,निजंधरी कथा तथा आख्यानात्मक कथाओं का भी समावेश होता है. प्राचीन साहित्य में उपलब्ध देवता, राक्षस,गन्धर्व,किन्नर,यक्ष आदि के सन्दर्भ, मिथक के अंग हैं.मिथक तत्व भाषा कि भांति ही मनुष्य कि निश्चित सर्जना शक्ति का विलास है.यह ऊपर से देखने में असत्य या अन्धविश्वास भले ही प्रतीत हो, गंभीरता पूर्वक विचार करने पर प उनमें किसी प्रच्छन्न या परोक्ष सत्य को पा लेना कठिन नहीं है.मिथक की उत्पत्ति के कारणों एक कारण  तो स्पष्ट है –जब आदिमानव ने अपने अंतर की अभिव्यक्ति के लिए किसी साधन को चुना होगा तो मिथक ही उसमें सबसे अधिक संप्रेषणीय तत्व रहा होगा.जैसे-जैसे भाषा में अभिव्यक्ति की क्षमता बढ़ती गयी और प्रतीक-विधान तथा बिम्ब योजना पुष्ट होती गयी मिथकों के प्रयोग का स्वरूप बदलता गया.मनोरंजन और कथात्मक आनंद के साथ मिथक अपने प्रारंभिक रूप से भिन्न हो गए.पौराणिक कथाएं,निजंधरी कथाएं तथा क्षेपक एवं दंतकथाएं इस बात के प्रमाण हैं कि मिथक तत्व अपनी समस्त ऊर्जा के साथ किसी न किसी रूप में भाषा और साहित्य में जीवित हैं.
               हिन्दी साहित्य में ‘मिथक’ के प्रयोग के परंपरा की शुरुआत आधुनिक काल से मानी जाती है.आधुनिक काल के प्रारंभ से ही रचनाकारों ने मिथक को महत्व देते हुए मिथक आधारित  रचनाओं का नयी दृष्टि से सृजन करना प्रारम्भ कर दिया था .हिन्दी  साहित्य में मिथक शब्द का प्रयोग नितांत अर्वाचीन होते हुए भी एक दीर्घ पौराणिक विस्तृत परंपरा का परिचायक है. विद्वानों ने ऐसा माना है कि मिथक का जन्म प्रकृति में मानव के उद्भव  के साथ ही हुआ है.मिथक उतना ही प्राचीन है जितनी स्वयं मानवजाति. मानव जाति के आरम्भ काल में जब मानव में सृष्टि को देखने तथा समझने की दृष्टि उत्पन्न हुई, इन कथाओं ने जन्म लेना आरम्भ कर दिया.प्रकृति के विभिन्न तत्वों जैसे सूर्य ,चंद्र ,नभ,धरा,पर्वत ,सागर आदि  जीवन  की  विभिन्न घटनाएँ  जैसे मृत्यु ,जन्म ,महामारी आदि , प्रकृति की विभिन्न घटनाएँ जैसे भूकंप ,जलप्लावन आदि मानस की अवधारणाओं तथा तत्सम्बन्धी हर्ष,भय, विषाद ,आश्चर्य आदि भावों को मिथक के द्वारा ही अभिव्यक्ति दी गई है.     
      मिथक शब्द हिन्दी साहित्य को  सर्वप्रथम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला. हिन्दी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मिथक मीमांसा प्रस्तुत की .उन्होंने लिखा “रूपगत सुंदरता को माधुर्य (मिठास ) और लावण्य (नमकीन) कहना बिलकुल झूठ है क्योंकि रूप न तो मीठा होता है न नमकीन .लेकिन फिर भी कहना पड़ता है  क्योंकि अंतर्जगत के भावों को बहिर्जगत की भाषा में व्यक्त करने का यही एक मात्र उपाय है .सच पूछिए तो यही मिथक तत्व है .   ....................मिथक तत्व वास्तव में भाषा का पूरक है. सारी भाषा इसके बल पर खड़ी है.आदिमानव के चित्त में संचित अनेक अनुभूतियाँ मिथक के रूप में प्रकट होने के लिए व्याकुल रहती हैं .मिथक वस्तुतः उस सामूहिक मानव कि भावनिर्मात्री शक्ति की अभिव्यक्ति है जिसे कुछ मनोविज्ञानी आर्किताईपल इमेज (आद्यबिम्ब )कहकर संतोष कर लेते हैं .”    
        डॉ.उषापुरी विद्या-वाचस्पति ने अपने ‘भारतीय मिथक कोश’ में मिथक शब्द की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए सिद्ध किया है कि संस्कृत के मिथ शब्द के साथ कर्तावाचक ‘क’ प्रत्यय जुड़ने से  इसका निर्माण हुआ है.संस्कृत के मिथ शब्द का प्रयोग प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए होता है जिसकी चर्चा  हम पहले भी कर चुके हैं तथा दो तत्वों के परस्पर सम्मेलन के लिए भी .मिथक के सन्दर्भ में दोनों तत्व जुड़े प्रतीत होते हैं .इस प्रकार मिथक लौकिक तथा अलौकिक तत्वों का मिश्रण है
             डॉ.नगेन्द्र मिथक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से न मानकर,अंग्रेजी से स्वीकार करते हैं .उनका मानना है कि मिथक अंग्रेजी के मिथ शब्द का हिन्दी पर्याय है और अंग्रेजी का मिथ शब्द यूनानी भाषा के शब्द ‘माइथामस’ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ  है आप्तवचन या अतर्क्य कथन जिसका प्रयोग अरस्तु ने फ्रेबिल (कथा-विधान )के रूप में किया है .हिन्दी में मिथ के लिए कल्पकथा , पुराकथा , धर्मगाथा , पुराख्यान तत्व आदि शब्दों का प्रयोग भी हुआ है .डॉ.रमेश कुंतल मेघ ने अपनी पुस्तक में मिथ शब्द का समानार्थी मिथक ही प्रयुक्त किया है और आज मिथक शब्द ही एक प्रकार से रूढ़ हो गया है.
मिथक के लिए डॉ. नगेन्द्र तथा कवि बच्चन ने ‘दन्तकथा’,डॉ.रामअवध द्विवेदी ने ‘पुरावृत्त’ ,डॉ.सत्येन्द्र ने ‘धर्मगाथा’ ,कवि  कुंवरनारायण ने ‘पुराकथा’ ,डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा ने ‘पुराख्यान’ और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘मिथक’ शब्द का प्रयोग किया जो आज हिंदी साहित्य में सर्वाधिक प्रचलित है. आचार्य द्विवेदी ने मिथक शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के ‘मिथ’ के आधार पर किया है और ‘क’ प्रत्यय जोड़कर उसे हिंदी बना दिया है .हालाँकि अंग्रेजी के मिथ और संस्कृत के मिथ में पर्याप्त अंतर है .अंग्रेजी का मिथक कोरी कल्पना पर आधारित माना  जाता है जबकि  संस्कृत का मिथक अलौकिकता का पुट लिए लोकानुभूति बताने को दर्शाता है .  

नयी कविता और मिथक का सन्दर्भ
            हिंदी में मिथक आधुनिक युग की देन हैं .हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रारंभ से ही मिथकों के महत्व वाली रचनाओं का सृजन आरम्भ हो चुका था . हिन्दू जाति बहुल देश के बौद्धिक निर्माण में पुराणों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जाने अनजाने यहाँ की एक बहुत बड़ी जनता पौराणिक देवताओं के चरित्रों और आदर्शों से प्रभावित और प्रेरित होती रही है. चेतना के निम्नतम और गहरे स्तर पर भी पौराणिक मिथकों का असर रहा है. इस दृष्टि से यह एक सहज सत्य है कि नये कवियों ने पौराणिक कथाओं और विश्वासों को युगबोध के स्तर पर पुनः नये ढंग से दुहरा कर या अपनी कविता में सजाकर  अपनी युगानुकूल प्रवृत्ति को एक चमक प्रदान करने के लिए पुराण का सहारा लिया . भक्तियुग में राधा-कृष्ण, राम-सीता, शिव-पार्वती आदि का सहारा भक्तों ने अपनी भावनाओं के लिए लिया था. रीतिकाल में भी रति और राग की विभिन्न क्रीड़ाओं को अभिव्यंजित करने के लिए राधा-कृष्ण का उपयोग कवियों ने अपने ढंग से किया. परिस्थिति को पुराण की दृष्टि से देखने की आदत कवियों में पुराकाल से ही चली आ रही है. स्वातंत्र्योत्तर काल में पौराणिक कथाओं के प्रयोग का स्वरूप इसलिए अधिक विचारणीय है कि आधुनिक काल में आधुनिकता न केवल समय की संज्ञा है , अपितु इससे विचारदर्शन का बोध होता है. स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक मनुष्य के सोचने-समझने का तरीका बदल रहा है . रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण की अनेक कथाएँ आधुनिक युग में आकर बौद्धिक आख्याओं से सम्बन्धित हो गयी . इसी बौद्धिक व्याख्या के रूप में नये कवियों ने भी पौराणिकता को ग्रहण किया.नयी कविता मोहभंग और यथार्थ के नवीनतम तीखे बोध तथा अंतर्राष्ट्रीय नवीन मूल्य चेतना की कविता है और इतिहास इसकी पृष्ठभूमि में अपना चेहरा बहुत कुछ बदल चुका है, तथापि नये कवियों ने पौराणिकता का प्रयोग अपने ढंग से किया है.इस प्रसंग के विस्तार में न जाते हुए मैथिलीशरण गुप्त रचित साकेत ,निराला रचित राम की शक्तिपूजा और प्रसाद की कामायनी का विशेष स्मरण कराया जा सकता है . हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर खंडकाव्यों की कथावस्तु में पौराणिक मिथकों को आधार बनाकर उसे नवीन अर्थवत्ता प्रदान करते हुए आधुनिक जीवन की किसी न किसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. बदलते हुए सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों का चित्रण भी इन काव्यों में विद्यमान है. धर्मवीर भारती के अंधायुग’, ‘महाप्रस्थान’, ‘कनुप्रियातथाशबरी’, नरेश मेहता का संशय की एक रात’, कुँवर नारायण का आत्मजयी तथा  ‘वाजश्रवा के बहाने’ , नरेन्द्र शर्मा का द्रौपदी’, जगदीश चन्द्र का शम्बूक’, नागार्जुन काभस्मांकुरएवं दिनकर के रश्मिरथीऔर उर्वशीजैसे खंडकाव्य इसके प्रमुख उदहारण हैं.
कुँवर नारायण के प्रबंध काव्यों में मिथक   
        हिन्दी साहित्य में कुँवर नारायण एक ऐसे नाम हैं जिनका समकालीन साहित्य में एक विशिष्ट स्थान हैं. कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में  ‘इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान’ को देखने के लिए जाना जाता है. नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’(1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. मिथक और समकालीनता को एक सिक्के के दो पहलू मानते हुए  उन्होंने पनी कविताओं में वेदों, पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों से उद्धरण दिया है.कुँवर नारायण जी ने प्राचीन कथाओं  के माध्यम से जो भी काव्य सृष्टि की ,वह अप्रतिम है.उनके काव्य में इतिहास और पुराण से सम्बंधित वृतांतों को लेकर जो भी रचा गया उसकी उपयोगिता वर्तमान परिपेक्ष्य को लेकर ही सृजित है .कवि अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए पुराण वर्णित कथाओं को खोज लाता है,प्राचीन परम्पराओं और समूहगत भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करता है और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए उसकी कल्पना स्वमेव ही मिथकीय माध्यम अपना लेती है .
    कुँवर नारायण जी ने मुख्य रूप से दो प्रबंध काव्यों  की रचना की है:-
(क) आत्मजयी
(ख) वाजश्रवा के बहाने
कुँवर नारायण के उपरोक्त दोनों काव्य कथ्य की दृष्टि से मिथकीय धरातल पर खड़े हैं.इन काव्यों की रचना में  कवि ने जो मिथकीय आयाम खोजे हैं उनमें अतीत उत्कंठित रूप से नवता का सूत्रधार बना है .
(क ) आत्मजयी   
  ‘आत्मजयी’ कुँवर नारायण जी द्वारा रचित प्रबंधकाव्य है जो ‘कठोपनिषद’ पर आधारित है  . १९६५  में प्रकाशित इस लघु महाकाव्य  में  मृत्यु के प्रति उनकी दृष्टि उजागर हुई है. मृत्युजिसका सामना हर व्यक्ति को अपने जीवन में करना होता है. उन्होंने अपने प्रबंध आत्मजयीमें मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा. २८ शीर्षकों में बंटे इस प्रबंध काव्य में कवि ने मूल्यों की सैद्धान्तिक विवेचना और दार्शनिक व्याख्या की है. कवि ने अपने प्रसंगों को सांस्कृतिक एवं दार्शनिक स्तर पर प्रस्तुत करते हुए लिखा है ---     
 “आत्मजयी में उठाई गई समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है,केवल ऐसे प्राणी की समस्या नहीं जो दैनिक आवश्यकताओं के आगे नहीं सोचता या सोच पाता.कथानक का नायक नचिकेता मात्र सुखों को अस्वीकार करता है :तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही उसके लिए पर्याप्त नहीं .उसके अंदर वह वृहत्तर जिज्ञासा है जिसके लिए केवल सुखी जीना काफी नहीं,सार्थक जीना जरुरी है .यह जिज्ञासा ही उसे साधारण प्राणी से विशिष्ट उन मनुष्यों की कोटि में रखती है जिन्होंने सत्य की खोज में अपने हित को गौण माना,कायिक जीवन को स्वप्न समझा और जिन्होंने ऐन्द्रिय सुखों के आधार पर ही जीवन से समझौता नहीं किया बल्कि उस चरम लक्ष्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया जो उन्हें पाने के योग्य लगा .”१०  
 “जीवन केवल सुख की साधना नहीं 
  वह दिव्य शक्ति
  अनवरत खोज                                      
  अनथक प्रयास
   वह मुक्ति-बोध
   उसको केवल पशु-सा तन से बाँधना नहीं !” ११                                                                                                                                            
             इस खंडकाव्य में  नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, ‘मृत्यवे त्वा ददामि अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है. उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं. नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए.आत्मजयी में उठायी गई समस्या एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है , केवल ऐसे प्राणी की समस्या नहीं जो दैनिक  आवश्यकताओं के आगे नहीं सोच पाता .कुँवर नारायण की रचनाओं में निराशा ,विसंगतियों,घुटन और बोझिल स्थितियों के विरुद्ध मानवीय बोध की संघर्ष चेतना की अभिव्यक्ति मिलती है .आज भौतिकवादी व्यवस्था से प्रभावित मानव का आत्मपरक सार्थकता पर विचार किया गया है .आज भौतिकवादी व्यवस्था से प्रभावित मानव का आत्मपरक दृष्टिकोण स्तर संचेतना को खाए जा रहा है.जीवन के उदात्त भाव और मानवीय मूल्य लुप्त हो रहे हैं.कुँवर नारायण जी ने इसी सन्दर्भ में लिखा है –
“ सम्पूर्ण बोध
हो चुका काल को अर्पित
जीवन में वापस आया
वह शोधित प्रसाद
मैं
सभी दिशाओं में प्रतिक्षण
उत्पन्न
विभाषित
आरम्भित
अनुसृष्टि नहीं –स्रष्टा स्वरूप
लाखों निर्माणों में गलता  ढलता
कोई अव्यय भविष्य ................
मैं जाग्रत हूँ-”१२    
कवि चिरंतन सत्य की रक्षा करने के लिए जाग्रत रहता है.उसे समाज के विघटित मूल्यों को देखकर पीड़ा होती है. नचिकेता के अन्दर एक वृहतर जिज्ञासा है जिसके लिए केवल सुखी जीना काफी नहीं,सार्थक जीना जरुरी है. आत्मजयी आस्था की कहानी का साथ साथ व्यक्ति के विजय पर्व की कहानी है जिसका प्रस्थान बिंदु है आत्मजयी. नचिकेता निरंतर एक सृजनधर्मी जीवन लोक की तलाश में रहता है .
 आत्मजयी में पीढ़ियों के संघर्ष के द्वारा युगीन जीवन के चित्रण का एक सार्थक प्रयास किया गया है. पुरानी पीढ़ी के प्रतीक  नचिकेता के पिता  वाजश्रवा उसके व्यक्तित्व को विकसित नही होने देना चाहते . नचिकेता विपरीत परिस्थतियों के विरोध में ‘अधिकार सामान होना चाहिए’ की मांग करता है .  कवि  कुँवर नारायण जी ने आत्मजयी को  पौराणिक कथावृत्त का सहारा लेकर आधुनिक सन्दर्भों में देखने का प्रयास किया है तथा एक नया वैचारिक आलोक देकर इसकी महत्ता को और बढ़ा दिया है जो उनकी मिथकीय दृष्टि का परिचायक है.
 “असहमति को अवसर दो .सहिष्णुता को अवचारण दो
कि बुद्धि सिर ऊँचा रख सके-
उसे हताश मत करो काइयाँ स्वार्थों से हराकर .
अविनय को स्थापित मत करो
उपेक्षा से खिन्न न हो जाए कहीं
मनुष्य की साहसिकता.”१३  

     ‘आत्मजयी’ में चिरंतन जीवन मूल्यों का संधानहै . कवि ने कहा है –“नचिकेता की चिंता अमर जीवन की चिंता है.अमर जीवन से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है,जो व्यक्ति जगत का अतिक्रमण करके सार्वकालिक एवं सार्वजनीन बन जाते हैं.”१४   

 (ख ) वाजश्रवा के बहाने
  कुँवर नारायण जी द्वारा रचित  खण्ड-काव्य  ‘वाजश्रवा के बहाने’ अपने समकालीनों और परवर्ती रचनाकारों के काव्य-संग्रहों के बीच एक अलग और विशिष्ट स्वाद देने वाला है जिसे प्रौढ़ विचारशील मन से ही महसूस किया जा सकता है.इसके पहले भाग ‘नचिकेता की वापसी’ में जीवनके आह्वान और उदय को देखा गया है तो दूसरे भाग ‘वाजश्रवा के बहाने’ में एक विदग्ध जीवन का सायंकाल है.  वाजश्रवा के बहाने , में उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है.
“कन्धों पर लबादा डाले
तख़्त पर बैठा वह वयोवृद्ध
एक पराजित सम्राट भी हो सकता है
और एक विरक्त संन्यासी भी!
एक कृतार्थ पिता भी हो सकता है वही
और एक पुत्र की उदासी भी .”१५  
 इस कृति की विरल विशेषता यह है कि अमूर्तको एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है. जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत वाजश्रवा के बहानेकृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है.
“मुझे दया से नफरत है .
दे सको तो बराबर की मैत्री दो ,
पर अपनी दया दे कर
दयनीय न बनाओ मुझे  .
सम्मानित जीवन दो,
या फिर एक सम्मानित मृत्यु
मरने दो मुझे .....”१६  
 कुँवर नारायण के इस संग्रह में भी मृत्यु का गहरा बोध है. भले ही इसमें जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की कोशिश है. यदि मृत्यु न होती तो जीवन को इस प्रकार देखने की आकांक्षा भी न होती. ‘मृत्यु ही जीवन को अर्थ देती है और निरर्थक में भी अर्थ भरती है' यह कथन असंगत नहीं है. मृत्यु है इसीलिए जिजीविषा भी है, जिजीविषा है इसीलिए सम्भावना भी.अंत में यही निष्कर्ष निकलत है कि जहाँ जीवन को लाँघ कर आकाश मार्ग से पहुंचा जा सकता है वहीं शायद जीवन को  जीते हुए थल मार्ग से .
 “दांतों और पंजों के
निशान खोजते हुए नहीं
केवल कुछ अलौकिक ध्वनियों के सहारे
आकार ले
यह निश्चय
कि जहाँ पहुँचा जा सकता है
आकाश-मार्ग से  - जीवन को लाँघकर
वहीं पहुँचा जा सकता है – थल मार्ग से भी
जीवन को जीते हुए” १७   

वाजश्रवा  के मन में आत्मिक उहापोह कम हैं ,वैदिक जीवन-दृष्टि की लौकिकता प्रमुख है.आज की भौतिकता में भी उसकी एक झलक पहचानी जा सकती है.साथ ही वाजश्रवा के मन में गहरा विक्षोभ है अपने उस अशुभ क्रोध को लेकर जिसके कारण उसका जीवन यज्ञ बाधित हुआ .
        “पुत्र की वापसी एक अमूल्य अवसर है कि वाजश्रवा अपनी भूल-चूकों को सुधार ले.इस अवसर तथा जीवन में आते रहने वाले इस तरह के अवसरों को ,इस लम्बी कविता में विशेष महत्त्व दिया गया है .पछतावा ,पुनरागमन जैसे शब्दों में यही भाव व्यंजित है .वापसी – जैसे भाव कविता में बार-बार लौटते हैं .आशा-निराशा के बीच झूलती मनःस्थितियों की लहरें हैं .पिता-पुत्र के संबंधों को मूलतः द्वंद्वात्मक ढंग से न देखकर संयुक्त या दोहरी जीवनशक्ति के रूप में देखा गया है . ‘क्षमाभाव’ और ‘पश्चाताप’ इसी शक्तिके द्योतक हैं.” १८   
 “अच्छा हुआ तुम लौट आये
मेरे जीवन में,
लेकिन जानता हूँ
नहीं आ सकोगे
-चाह कर भी नहीं –
वापस मेरे युग में !”१९  

    कुँवर नारायण के इस काव्य में विषय वस्तु के बिल्कुल विपरीत एक गजब की सहजता और भाषा प्रवाह है. कहीं कोई शब्द अपरिचित नहीं और अर्थ की गहराइयों के साथ विद्यमान है . पूरी रचना में प्रबंध तत्वों को बहुत चुस्त और व्यवस्थित न रख कर थोड़ा ढीला रखा गया है . इस काव्य की हर कविता अपने में अलग, मगर एक विचार प्रवाह में जुड़ी हुई है.विभिन्न खंड कुछ इस तरह एक-दूसरे में आते जाते रहते हैं मानों उनके बीच विभाजक रेखाएं न होकर अलिखित संधियां हों . विषय गम्भीरता के साथ सहजता का यह अद्भुत संयोग महान कवि तुलसी की याद दिला देता है. आज के काव्य परिदृश्य में जबकि वर्तमान और स्थूल दृश्य का यथार्थ ही सब कुछ है, इस भाव भूमि की कविता से गुजरना एक विरल अनुभव है.   कृति में ऋगवेद,  उपनिषद और गीता की न जाने कितनी दार्शनिक अनुगूंजें हैं इसमें, जो कुछ सुनायी पड़ती हैं, कुछ नहीं सुनायी पड़तीं.
“लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर –
लोक में   परलोक में
तम में     आलोक में
शोक में   अशोक में :” २०   ( यत् ते यमं वैवस्वतं ...................क्षयाय जीवसे )                                                             ऋग्वेद (मानस))१०/५८
        निष्कर्षतः, यह धारणा  अटल है कि मिथक और संस्कारों को  बिना समझे भारतीय जनमानस और भारतीय  दर्शन को नहीं समझा जा सकता .कुँवर नारायण का  समस्त काव्य इसी भारतीय  जनमानस और जीवन-दर्शन को समझने की प्रक्रिया का परिणामहै . कुँवर नारायण रचित उपरोक्त काव्यों की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इनमें कवि ने भारतीय प्राचीन मिथकों, प्रतीकों को आधुनिक संदर्भो में इस्तेमाल करते हुए समकालीन जीवन से जोड़ कर प्रस्तुत किया है.मिथकों के प्रति गंभीर संवेदनशीलता रखते हुए कुँवर नारायण ने  न तो उन्हें इतिहास बनाने का प्रयास किया है और न ही उनपर अपने समकालीन राजनैतिक आग्रहों को आरोपित करने का .कवि  ने अपने  काव्य के बहाने मिथकों की पुनर्रचना का भी सार्थक प्रयास किया है .इस प्रकार कुँवर नारायण जी के काव्य उनके अद्भुत और अनुपमेय मिथिकीय काव्य चेतना के परिचायक हैं .
                                                                                                            
 संदर्भ ग्रन्थ सूची :-
       भारतीय मिथक कोश : डॉ.उषा पुरी
       भारतीय मिथक कोश : डॉ.उषा पुरी
       मिथक और साहित्य : डॉ.नगेन्द्र
         डॉ नगेन्द्र – काव्य बिम्ब पृष्ठ -८
       डॉ विश्वम्भर नाथ उपाध्याय –जलते और उबलते प्रश्न
       मिथक और साहित्य : डॉ.नगेन्द्र
       डॉ कैलाश वाजपेयी –आधुनिक हिन्दी कविता में शिल्प ,पृ.-८२
       मिथक और स्वप्न – रमेश कुंतल मेघ
       हिंदी काव्य में मिथक का समसामयिक सन्दर्भ : डॉ. सविता मोहन पृष्ठ २
१०  कुँवर नारायण :आत्मजयी भूमिका से
११  कुँवर नारायण :आत्मजयी
१२   कुँवर नारायण :आत्मजयी पृ. ८७-८८
१३  कुँवर नारायण :आत्मजयी पृ.-९
१४  कुँवर नारायण :आत्मजयी भूमिका से
१५  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने पृ.-४१
१६  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने पृ.-१०० 
१७  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने पृ.-१२०
१८  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने की भूमिका से
१९  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने पृ.-९६ 
२०  कुँवर नारायण :वाजश्रवा के बहाने पृ.-१८ 
                                              

                                                            नाम :- सुस्मित सौरभ
जन्म तिथि : ३१ अगस्त 1983
पता : C5A/52,जनकपुरी
नई दिल्ली,भारत 
पिन :- 110058


        


1 टिप्पणी: