कुंवर नारायण के काव्य में मिथकीय चेतना
मिथक:अर्थ और स्वरूप
काव्य से मिथक का
घनिष्ठ सम्बन्ध है जो भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी माना जाता है. हिंदी
में मिथक शब्द का प्रयोग आधुनिक काल में प्रारंभ हुआ जो सन 1950 के बाद नयी कविता
में सृजन के एक विशिष्ट उपादान की तरह प्रयुक्त होने लगा . मिथक शब्द अंग्रेज़ी के ‘मिथ’
का हिंदी रूप है तथा यह शब्द हिंदी जगत को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से
मिला.मिथ मूलतः ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है –‘वाणी का विषय’ . वाणी का
विषय से तात्पर्य है –एक कहानी ,एक आख्यान जो प्राचीन काल में सत्य माने जाते थे
और कुछ रहस्यमय अर्थ देते थे.मिथ शब्द के कुछ कोशगत अर्थ भी हैं –कोई पुरानी कहानी
अथवा लोक विश्वास ,किसी जाति का आख्यान धार्मिक विश्वासों एवं प्रकृति के रहस्यों
के विश्लेषण से युक्त देवताओं तथा वीर पुरुषों की पारंपरिक गाथा ,कथन ,वृत्त,
किवदंती, परंपरागत कथा आदि.यदि इन सब अर्थों की मीमांसा की जाये तो एक बात सब
अर्थों के मूल में किसी न किसी सीमा तक लक्षित है –‘सबके मूल में कथा तत्व का होना’
.
मिथक को दार्शनिक
,तत्व्शास्त्री ,समाजशास्त्री ,भाषाविज्ञानी,इतिहासकार और कोशकार सभी ने अपने अपने
ढंग से परिभाषित किया .अरस्तु के यहाँ मिथ शब्द का का प्रयोग कथाबंध या गल्प कथा
के रूप में मिलता है. रिचर्ड चेज का कहना है –‘मिथक ही साहित्य है’.वे कहते हैं कि
साहित्य का मुख्य रूप मिथकात्मक ही होता है.
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रेसकाट ने अपनी पुस्तक ‘पोएट्री एंड
मिथ’ में कविता और मिथक के व्यापक विमर्श प्रस्तुत किये. ‘एनसाइक्लोपिडिया आव
रिलिजन एंड एन्थ्रिक्स’ में ई.ए.गार्डनर ने मिथक पर विचार करते हुए कहा कि मिथक
प्रायः प्रत्यक्षतः या परोक्षतः कथा रूप में होता है.इस प्रकार मिथक कथा ,नीति-कथा
या अन्योक्ति से उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार कहानी या रूपाख्यान से.
‘एनसाइक्लोपिडिया आव सोसल
साइंसेज’ में कहा गया गया है कि मिथक लोक साहित्य के सामान जातीय आकांक्षाओं
,आदर्शों का एक सुस्पष्ट माध्यम है. प्रसिद्ध
विद्वान् मैक्समूलर ने मिथक को केवल भाषा का रोग ,मैलेडी आव लैंग्वेज मात्र माना
है.भाषा जब असमर्थता के कारण एक के स्थान पर ,साम्य या भ्रान्ति के कारण, दूसरे
शब्द को ग्रहण कर लेती है और अर्थ विषयक परिवर्तन भी पैदा कर देती है तब मिथक का
जन्म होता है.
विद्वान् अर्न्स्ट कैसिरार मिथक का क्षेत्र इतना व्यापक मानते है कि
मानव जीवन का कोई भी क्रिया-कलाप ऐसा नहीं है जो मिथकीय न हो.श्री हेनरी जे. मरे
के अनुसार मिथक किसी अनुमानित या विलक्षण घटना का बोधात्मक तथा नाटकीय
प्रतिवस्तु-स्थापना है.वस्तुतः मिथक के स्वरूप को लेकर अनेक विचार और मत मिलते हैं
.मिथक कोरी कल्पना न होकर कल्पना के खोल में अपने समय का एक सामाजिक यथार्थ होता
है .मिथकीय कल्पना के सम्बन्ध में कहा जा सकता है की मिथक का कथ्य आज कल्पना का
विषय बन चुका है तथा सत्रहवीं –अठारहवीं शताब्दी में कपोल-कल्पना समझा जाने वाला
मिथ मनोविज्ञान और विज्ञान के प्रगति के साथ अपना अर्थ बदलने लगा है.प्रारंभ में
तो मिथक अध्येताओं ने मिथक के धार्मिक पक्ष,देवी-देवताओं की कथा को ही महत्व दिया
परन्तु धीरे-धीरे इसके मनोवैज्ञानिक अभिप्राय और सांस्कृतिक पक्ष को प्रधानता
मिलने लगी.
हिंदी और मिथक
हिंदी में
मिथकों को मोटे तौर पर कम ही परिभाषित किया गया है जिसका कारण था भारतीय पुराणों
को पुनरुत्थानवादी ग्रंथों के रूप में न देखा जाना.हिंदी में पुरा-कथाओं के प्राक-प्रवाह
में विद्यमान समकालीन दर्शन को मिथक कहा गया .सबसे पहले आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने मिथक-मीमांसा प्रस्तुत की .उन्होंने कहा की मिथक तत्व उस सामूहिक मानव
की भाव-निर्मात्री शक्ति की अभिव्यक्ति है जिसे कुछ मनोविज्ञानी आर्किताइल
इमेज(आद्य्बिम्ब) कहते हैं.डॉ.उषापुरी विद्या-वाचस्पति ने अपने ‘भारतीय मिथक कोश’ में इस शब्द को संस्कृत के ‘मिथ’ शब्द से
कर्त्तावाचक ‘क’ प्रत्यय लगाकर व्युत्पन्न माना है.संस्कृत में मिथ शब्द का प्रयोग
प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए भी होता है और दो तत्वों के परस्पर मेल के लिए भी.मिथक के
सन्दर्भ में दोनों अर्थ जुड़े हुए प्रतीत
होते हैं. डॉ नगेन्द्र मिथक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से न मान कर अंग्रेजी से
स्वीकार करते हैं .हिंदी समीक्षकों ने अपने-अपने मतों के प्रस्तुतीकरण के अतिरिक्त
मिथक को कुछ नयी संज्ञाएँ भी दीं .मिथक के लिए डॉ. नगेन्द्र तथा कवि बच्चन ने ‘दन्तकथा’,डॉ.रामअवध
द्विवेदी ने ‘पुरावृत्त’ ,डॉ.सत्येन्द्र ने ‘धर्मगाथा’ ,कवि कुंवरनारायण ने ‘पुराकथा’ ,डॉ. लक्ष्मीनारायण
शर्मा ने ‘पुराख्यान’ और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘मिथक’ शब्द का प्रयोग
किया जो आज हिंदी साहित्य में सर्वाधिक प्रचलित है. आचार्य द्विवेदी ने मिथक शब्द का प्रयोग
अंग्रेजी के ‘मिथ’ के आधार पर किया है और ‘क’ प्रत्यय जोड़कर उसे हिंदी बना दिया है
.हालाँकि अंग्रेजी के मिथ और संस्कृत के मिथ में पर्याप्त अंतर है .अंग्रेजी का
मिथक कोरी कल्पना पर आधारित माना जाता है
जबकि संस्कृत का मिथक अलौकिकता का पुट लिए
लोकानुभूति बताने को दर्शाता है .
नयी कविता और मिथक का सन्दर्भ
हिंदी में मिथक आधुनिक युग की देन
हैं .हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रारंभ से ही मिथकों के महत्व वाली रचनाओं
का सृजन आरम्भ हो चुका था . हिन्दू जाति बहुल देश के बौद्धिक निर्माण में पुराणों
का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जाने अनजाने यहां की एक बहुत बड़ी जनता पौराणिक देवताओं के
चरित्रों और आदर्शों से प्रभावित और प्रेरित होती रही है. चेतना के निम्नतम और
गहरे स्तर पर भी पौराणिक मिथकों का असर रहा है. इस दृष्टि से यह एक सहज सत्य है कि
नये कवियों ने पौराणिक कथाओं और विश्वासों को युगबोध के स्तर पर पुनः नये ढंग से
दुहरा कर या अपनी कविता में सजाकर अपनी
युगानुकूल प्रवृत्ति को एक चमक प्रदान करने के लिए पुराण का सहारा लिया . भक्तियुग
में राधा-कृष्ण, राम-सीता, शिव-पार्वती आदि का सहारा भक्तों ने अपनी
भावनाओं के लिए लिया था. रीतिकाल में भी रति और राग की विभिन्न क्रीड़ाओं को
अभिव्यंजित करने के लिए राधा-कृष्ण का उपयोग कवियों ने अपने ढंग से किया.
परिस्थिति को पुराण की दृष्टि से देखने की आदत कवियों में पुराकाल से ही चली आ रही
है. स्वातंत्र्योत्तर काल में पौराणिक कथाओं के प्रयोग का स्वरूप इसलिए अधिक
विचारणीय है कि आधुनिक काल में आधुनिकता न केवल समय की संज्ञा है , अपितु इससे विचारदर्शन का बोध होता है. स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक मनुष्य के
सोचने-समझने का तरीका बदल रहा है . रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण की अनेक कथाएँ आधुनिक युग में आकर
बौद्धिक आख्याओं से सम्बन्धित हो गयी . इसी बौद्धिक व्याख्या के रूप में नये
कवियों ने भी पौराणिकता को ग्रहण किया.नयी कविता मोहभंग और यथार्थ के नवीनतम तीखे
बोध तथा अंतर्राष्ट्रीय नवीन मूल्य चेतना की कविता है और इतिहास इसकी पृष्ठभूमि
में अपना चेहरा बहुत कुछ बदल चुका है, तथापि नये कवियों ने
पौराणिकता का प्रयोग अपने ढंग से किया है.इस प्रसंग के विस्तार में न जाते हुए
मैथिलीशरण गुप्त रचित साकेत ,निराला रचित राम की शक्तिपूजा और प्रसाद की कामायनी
का विशेष स्मरण कराया जा सकता है . हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर खंडकाव्यों की कथावस्तु
में पौराणिक मिथकों को आधार बनाकर उसे नवीन अर्थवत्ता प्रदान करते हुए आधुनिक जीवन
की किसी न किसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. बदलते हुए
सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों का चित्रण भी इन
काव्यों में विद्यमान है. धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’,
‘महाप्रस्थान’, ‘कनुप्रिया’ तथा ‘शबरी’, नरेश मेहता का ‘संशय की एक रात’, कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’ तथा
‘वाजश्रवा के बहाने’ , नरेन्द्र शर्मा का ‘द्रौपदी’, जगदीश चन्द्र का ‘शम्बूक’,
नागार्जुन का ‘भस्मांकुर’ एवं दिनकर के ‘रश्मिरथी’ और ‘उर्वशी’ जैसे खंडकाव्य इसके प्रमुख उदहारण हैं.कुंवर नारायण:एक संक्षिप्त परिचय
हिन्दी साहित्य में कुंवर नारायण एक ऐसे नाम हैं जिनका समकालीन साहित्य में एक विशिष्ट स्थान हैं. कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में ‘इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान’ को देखने के लिए जाना जाता है। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’(1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं. यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है. इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे. उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है. हिन्दी के प्रख्यात कवि कुँवर नारायण का जन्म 19 सितंबर 1927 को हुआ था. उन्होने इंटर तक की पढ़ाई विज्ञान विषय से की लेकिन आगे चल कर वे साहित्य के विद्यार्थी बने और 1959 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया. एम०एम० करने के ठीक पाँच वर्ष बाद वर्ष 1956 में 29 वर्ष की आयु में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘चक्रव्यूह’ नाम से प्रकाशित हुआ.अज्ञेय जी ने वर्ष 1959 में उनकी कविताओं को केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ ‘तीसरा सप्तक‘ में शामिल किया.1965 में ‘आत्मजयी‘ जैसे प्रबंध काव्य के प्रकाशन के साथ ही कुंवर नारायण ने असीम संभावनाओं वाले कवि के रूप में पहचान बना ली। फिर तो ‘आकारों के आसपास’ (कहानी संग्रह-1979 ), ‘परिवेश : हम-तुम’, ‘अपने सामने’, ‘कोई दूसरा नहीं’, ‘इन दिनों’, ‘आज और आज से पहले’ (समीक्षा),’ मेरे साक्षात्कार’,’हाशिये का गवाह’ और हाल ही में प्रकाशित ‘वाजश्रवा के बहाने’ सहित उनकी तमाम कृतियाँ आती रही.
कुंवर नारायण की मिथकीय चेतना
मिथक
और समकालीनता को एक सिक्के के दो पहलू मानते हुए कुँवर नारायण जी ने अपनी कविताओं में
वेदों, पुराणों व अन्य
धर्मग्रंथों से उद्धरण दिया है. आत्मजयी (कठोपनिषद पर आधारित और 1965 में
प्रकाशित एक लघु महाकाव्य) में मृत्यु के
प्रति उनकी दृष्टि उजागर हुई है. मृत्यु–जिसका सामना
हर व्यक्ति को अपने जीवन में करना होता
है. उन्होंने अपने प्रबंध ‘आत्मजयी’ में मृत्यु
संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का
माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ
हमारे सामने रखा. इसमें नचिकेता अपने
पिता की आज्ञा, ‘मृत्य वे त्वा
ददामीति’
अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम
के द्वार पर चला जाता है,
जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर
यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है. उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर
यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं. नचिकेता इनमें से पहला वरदान
यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए.आत्मजयी में
उठायी गई समस्या एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है ,केवल ऐसे प्राणी की समस्या
नहीं जो दैनिक आवश्यकताओं के आगे नहीं सोच
पाता .नचिकेता के अन्दर एक वृहतर जिज्ञासा है जिसके लिए केवल सुखी जीना काफी
नहीं,सार्थक जीना जरुरी है .आत्मजयी आस्था की कहानी का साथ साथ व्यक्ति के विजय
पर्व की कहानी है जिसका प्रस्थान बिंदु है आत्मजयी .नचिकेता निरंतर एक सृजनधर्मी
जीवन लोक की तलाश में रहता है .आत्मजयी में पीढ़ियों के संघर्ष के द्वारा युगीन
जीवन के चित्रण का एक सार्थक प्रयास किया गया है .पुरानी पीढ़ी के प्रतिक नचिकेता
के पिता वाजश्रवा उसके व्यक्तित्व को
विकसित नही होने देना चाहते .नचिकेता विपरीत परिस्थतियों के विरोध में ‘अधिकार
सामान होना चाहिए’ की मांग करता है .कवि
कुंवर नारायण जी ने आत्मजयी को
पौराणिक कथावृत्त का सहारा लेकर आधुनिक सन्दर्भों में देखने का प्रयास किया
है तथा एक नया वैचारिक आलोक देकर इसकी महत्ता को और बढ़ा दिया है जो उनकी मिथकीय
दृष्टि का परिचायक है.
कुंवर
नारायण जी द्वारा रचित खण्ड-काव्य
वाजश्रवा के बहाने अपने समकालीनों और परवर्ती रचनाकारों के काव्य-संग्रहों के बीच एक
अलग और विशिष्ट स्वाद देने वाला है जिसे प्रौढ़ विचारशील मन से ही महसूस
किया जा सकता है. ‘वाजश्रवा के बहाने’,
में उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में
जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध
किया है. इस कृति की विरल विशेषता यह है कि ‘अमूर्त’को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह
परख जिजीविषा को वाणी दी है. जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी
ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है,
वहीं इसके ठीक विपरीत ‘वाजश्रवा के बहाने’कृति में अपनी विधायक
संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है. ऋगवेद, उपनिषद और गीता की
न जाने कितनी दार्शनिक अनुगूंजें हैं इसमें,
जो कुछ सुनायी पड़ती हैं, कुछ
नहीं सुनायी पड़तीं. कुंवर नारायण के इस संग्रह में भी मृत्यु का गहरा बोध है.
भले ही इसमें जीवन की ओर से मृत्यु
को देखने की कोशिश है. यदि मृत्यु न
होती तो जीवन को इस प्रकार देखने की
आकांक्षा भी न होती. ‘मृत्यु ही जीवन
को अर्थ देती है और निरर्थक में भी
अर्थ भरती है' यह
कथन असंगत नहीं है. मृत्यु है इसीलिए जिजीविषा भी है, जिजीविषा
है इसीलिए सम्भावना भी. कुंवर नारायण के इस काव्य में विषयवस्तु के बिल्कुल विपरीत
एक गजब की सहजता और भाषा प्रवाह है. कहीं कोई शब्द
अपरिचित नहीं और अर्थ की गहराइयों के साथ विद्यमान है . इस काव्य की हर कविता
अपने में अलग, मगर एक विचार प्रवाह में जुड़ी हुई है. विषय गम्भीरता
के साथ सहजता का यह अद्भुत संयोग महान कवि तुलसी की याद दिला देता है.
आज के काव्य परिदृश्य में जबकि वर्तमान और स्थूल दृश्य का यथार्थ ही सब कुछ
है, इस भाव भूमि की कविता से गुजरना एक विरल अनुभव
है.
कुंवर नारायण रचित उपरोक्त काव्यों
की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इनमें कवि ने भारतीय प्राचीन
मिथकों, प्रतीकों को आधुनिक
संदर्भो में इस्तेमाल
करते हुए समकालीन जीवन से जोड़ कर प्रस्तुत किया है .मिथकों के प्रति गंभीर
संवेदनशीलता रखते हुए कुंवर नारायण ने न
तो उन्हें इतिहास बनाने का प्रयास किया है और न ही उनपर अपने समकालीन राजनैतिक
आग्रहों को आरोपित करने का .कवी ने अपने
काव्य के बहाने मिथकों की पुनर्रचना का भी सार्थक प्रयास किया है .इसप्रकार
कुंवर नारायण जी के काव्य उनके अद्भुत और अनुपमेय मिथिकीय काव्य चेतना के परिचायक
हैं तथा उन्हें मिथक काव्य के इतिहास में मील का पत्थर साबित करने में सफल सिद्ध
होते हैं .
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